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‘बेकार’ होने के बाद कैसे जिंदा रहती हैं जीबी रोड की औरतें?

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पिछले साल बरसात के मौसम की बात है. अपनी एक महिला मित्र को छोड़ने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन गया था. ट्रेन आने में वक़्त था इसलिए जनरल वेटिंग एरिया में बैठ कर बातें कर रहे थे. दोपहर का वक़्त था. तभी सामने एक अधेड़ सी महिला पर नज़र पड़ी. फर्श पर लेटी थी, हुलिए से भिखारन लगती थी. उसके हाव भाव ने ध्यान अपनी तरफ खींचा. एक कोल्ड ड्रिंक की पुरानी-सी बोतल में पानी ले कर लेटी थी और थोड़ा-थोड़ा पानी हाथों में ले कर बार बार शरीर पर यहाँ-वहाँ रगड़ रही थी, जैसे उन हिस्सों में जलन हो रही हो. अजीब-अजीब सी शक्लें बनाती, जैसे तेज़ जलन का दर्द हो. हरक़तें असामान्य थीं, शायद मानसिक विक्षिप्त थी. हम दोनों उसे देखते हुए अपनी बातें जारी रखे हुए थे, लेकिन ध्यान उसी पर था.

थोड़ी देर में एक स्वीपर उधर से गुज़रा तो उत्सुकतावश उससे पूछ ही लिया, कौन है वो? उसने कहा, साहब ‘उधर से आई है’, और हाथ उस तरफ दिखा दिया जिधर दिल्ली का सबसे बदनाम इलाका है, जीबी रोड कहते हैं उसे.

इतना सुन कर हज़ार सवाल और पैदा हो गए और जिज्ञासा शांत होने की जगह बढ़ने लगी. मैंने कहा, “लेकिन उधर ये सब कहां होता है?” मेरा तात्पर्य भीख वगैरह के धंधे से था.

स्वीपर थोड़ा जल्दी में था, लेकिन फिर भी मेरे मतलब की बात बता गया.

उस औरत का नाम रत्ना था, उम्र लगभग 45 साल. कुछ साल पहले तक जीबी रोड पर ‘धंधेवाली’ थी. फिर एक रोज़ वो हुआ जिसके न होने की कामना हर धंधेवाली करती है.

ढलती उम्र में ग्राहकों की कमी ने ग्राहकों की वाज़िब-ग़ैरवाज़िब हर मांग को मानने पर मजबूर कर दिया उसे. और एक दिन गर्भ ठहर गया. उसकी गलती उसके लिए बहुत बड़ी साबित हुई. गिरा तो दिया लेकिन जो वक़्त सेहत सुधरने में लगा उसने उसके बचे-खुचे ग्राहक भी छीन लिए. फिर एक दिन उसके दलाल ने उसके साथ वही किया जो बाकी “बेकार” हो चुकी धंधे वालियों के साथ होता है.

रेड लाइट एरिया में कोई रिटायरमेंट प्लान नहीं होता. कहीं ये बेकार औरतें बोझ न बन जाएं इसलिए इनके साथ अमानवीय काम होते हैं. रत्ना के ऊपर सोते वक़्त किसी ने एसिड की बोतल उड़ेल दी. छह-सात महीने अस्पताल में गुज़ारने के बाद कोई और ठिकाना नहीं मिला तो वापस उसी दलदल में पहुंच गयी ज़िन्दगी बचाने की उम्मीद लिए. दिमागी हालात भी बदतर होते जा रहे थे. लिहाज़ा बाकी बेकार औरतों जैसे उसे भी नए धंधे पर लगा दिया गया. अब सुबह आठ बजे गाड़ी स्टेशन पर छोड़ जाती है और रात में दस बजे ले जाती है. दिन भर स्टेशन में कहीं पड़ी रहती है और लोग तरस खा कर दो, पांच, दस, जितना तरस जेब पर भारी न पड़े, उतना दे देते हैं. दिन भर के कलेक्शन में सत्तर फ़ीसदी हिस्सा मालिक ले लेता है. लेकिन ज़िन्दगी बची है, इस बात से खुश हो जाती है रत्ना.

कोई दुकान वाला खाना दे देता है, तो कोई यात्री कोई कपड़ा. नहीं मिलता तो आधा-पूरा बदन उघारे लोटती रहती हैं किसी न किसी प्लेटफार्म पर. कभी कभी होश में रहने पर वो हंस कर कहती है, ‘मैं माँ नहीं बन सकती, अब मेरे को महीना नहीं आता.’ फिर रुआंसी हो कर कहती है, ‘लेकिन अब कोई कस्टमर भी नहीं आता.’

असल में वेश्याएं, ‘धन्धेवालियां’, ‘रंडियां’ वगैरह औरतों की जमात का वो हिस्सा हैं जिनके लिए औरतपन गुनाह है. वो घर नहीं बसा सकतीं, मां नहीं बन सकतीं, बच्चे नहीं पाल सकतीं, परिवार का हिस्सा नहीं बन सकतीं. और तो और,अपने मासिक को भी दवाओं के भरोसे चलाती हैं. कभी दो रोज़ आगे, तो कभी दो रोज़ पीछे. कच्ची उम्र में गर्भ रोकना पड़ता है ताकि छाती में दूध भर सके. इंजेक्शन लेती हैं ताकि छातियां 30 से 34 और 34 से 38 हो जाएं. धंधे की मांग जो ठहरी. ग्राहकों को दूध से भरी छातियाँ बहुत पसंद हैं. गर्भवतियों की अलग डिमांड है. कुछ फ़ैंटेसी के मारे माहवारीशुदा “माल” खोजते हैं. बाक़ायदा उसके एक्स्ट्रा पैसे भी देते हैं, और सारा खेल पैसे के लिए ही तो होता है, इसलिये जैसी डिमांड हो वैसी सप्लाई भी करनी पड़ती है.

लेकिन परिपक्व होने के बाद, उम्र होने के बाद, शरीर की कसावट के गिराव के बाद वही छातियाँ, वही गर्भ, वही माहवारी अपराध बन जाता है. उनके खुद के लिए. उनकी ज़िन्दगी के लिए, उनके सर्वाइवल के लिए. इसके बावजूद इन बदनाम गलियों में बच्चे पैदा होते हैं, पाले जाते हैं, पढ़ाये जाते हैं. सोच लीजिये उनकी माओं ने कितना बड़ा रिस्क लिया होगा, कितना बड़ा त्याग किया होगा, क्या-क्या दांव पर लगाया होगा.

जीबी रोड की तरफ जाने वाले ज़्यादातर ऑटो के पीछे लिखा देखा है – ‘ये ऑटो औरतों का सम्मान करता है.’

जीबी रोड की तरफ जाते वक़्त एक बड़ी सी होर्डिंग लगी थी कुछ वक़्त पहले तक – ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ

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